लोगों की राय

कविता संग्रह >> खुशबुओं का शहर

खुशबुओं का शहर

अशोक मधुप

प्रकाशक : जे एम डी पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16037
आईएसबीएन :81-86602-23-2

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

हिन्दी ग़जल संकलन

भूमिका

हिन्दी हमारी सामासिक संस्कृति की उपज है। इसकी शब्द सम्पदा, छन्द विधान और काव्य परम्परा संस्कृत और अपभ्रंश पर आधारित होते हुए भी समय-समय पर अन्य भाषा सम्पर्को से भी प्रभावित होती रही है। इतिहास की बदलती करवटों के कारण यहां फारसी भाषा का प्रवेश हुआ। हिन्दी ने भी फारसी से ग्रहीत कई काव्य विधाओं को अपनाया। हिन्दी में ‘रुबाई', 'गजल' और 'क़तों' का भी प्रवेश हुआ। यही नहीं आधुनिक काल में जापान से 'हाइक' और अंग्रेजी साहित्य से 'सोनेट' लिखने का चलन भी हिन्दी में आया है।

एक लोकप्रिय काव्य विधा के रूप में ग़ज़ल अब हिन्दी काव्य के क्षेत्र में अपना स्थान बना चुकी है। हिन्दी की कोई भी साहित्यिक पत्रिका हो या काव्य गोष्ठी, ग़ज़ल अपनी दस्तक दे ही जाती है। हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा नई नहीं है। इसका सबसे पहला प्रयोग अमीर खुसरो (1253-1325) के काव्य में मिलता है। ग़ज़ल की विधा अरबी से फारसी में और फारसी से सीधे हिन्दी में आई। अमीर खुसरो की फारसी हिन्दी मिश्रित ग़ज़ल, जिसका एक मिसरा फारसी और दूसरा हिन्दी का है इसका स्पष्ट प्रमाण है।

कालान्तर में ग़ज़लों को उत्तर भारत में अधिक प्रश्रय नहीं मिला। हाँ, दक्खिनी के कवियों ने खूब ग़ज़लें लिखी। वली दक्खिनी जब दिल्ली आये तो उर्दू में ग़ज़लें लिखी जाने लगी, इससे पूर्व फारसी में ही गजलें लिखी जाती थीं। कबीर जैसे संतों की वाणी में भी कहीं-कहीं ग़ज़ल का रंग झलक जाता है

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।

आधुनिक काल में भारतेन्दु के पिता गिरधर दास और प्यारे लाल शौकी तथा स्वयं भारतेन्दु ने रसा कवि नाम से ग़ज़लें लिखी। इसी परम्परा में जयशंकर प्रसाद, प्रेमधन, लाला भगवानदीन, हरिऔध आदि हिन्दी कवियों ने भी ग़ज़लें कहीं। निराला ने ग़ज़ल को फारसी और उर्दू के व्याकरण के शिकंजे से बाहर निकाला. इससे हिन्दी ग़ज़ल रूमानियत के परम्परागत प्रभाव से मुक्त हो गई।

हिन्दी ग़ज़ल को स्वतन्त्र पहचान देने का श्रेय दृष्यन्त कसार मिना सकता है। जिन्होंने 1975 में साये में धूप पहला गजल संग्रह प्रस्तत कर हिन्दी में नये युग का सूत्रपात किया। इसी काल में शमशेर बहादर सिंह बलबीर सिंह रंग, गोपाल दास 'नीरज', अंचल, चिरंजीत, हनुमन्त नायट बाल स्वरूप राही, कुँवर बैचेन आदि ग़ज़लकारों की रचनाओं से हिन्दी गजल को नया आयाम मिला।

आज हिन्दी ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। नई पीढी के अनेक सशक्त हस्ताक्षर इस विधा को समृद्ध बनाने में आगे आ रहे हैं। जिसमें अशोक मधुप का नाम भी उल्लेखनीय है। हिन्दी ग़ज़ल के नवोटित रचनाकारों के लिए जहां इस विधा में अक्षय सम्पदा विद्यमान है, वही अध्ययन एवं शोध की दृष्टि से पर्याप्त संभावनाएं भी हैं।

खशबुओं का शहर एक ऐसा समवेत ग़ज़ल संकलन है जिसमें हिन्दी एवं उर्दू के सत्रह गजलकारों को स्थान प्राप्त है। संकलन की गजलें प्रायः सम-सामयिक, देश-प्रेम, राष्ट्रीय-चेतना एवं प्रेम प्रसंगों पर आधारित है। संकलन की अधिकांश गज़लें भाषा एवं शिल्प की दृष्टि से पुष्ट है परन्तु इनमें कहीं-कहीं लचरता भी दृष्टिगत होती है। संकलन में ग़ज़लों के कई शेर निश्चय ही भावाभिव्यक्ति के अनूठे उदाहरण है। इतने सरल शब्दों में कही गई बात कितने बड़े कौतूहल को जन्म दे रही है ज़रा देखिये

ख़्वाब में आते हो तुम रोज़ ही आ जाते हो
मेरी साँसों को सनम कुर्ब से महकाओ तुम
 
खुशबू के इस शहर में इतनी खुशबएं हैं कि दिल मौत्तिर हो उठता

अहले महफ़िल ने जाने उनसे क्या कह दिया,
आके बैठे भी न थे और एक दम जाने लगे।
 
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी गीतकार एवं ग़ज़लकार अशोक मधुप के कुशल संपादन में यह संकलन अपने अद्वितीय कलेवर के साथ पठनीय एवं संग्रहणीय बन गया है।
सुधी पाठकगण मुक्तहस्त से इसका भरपूर स्वागत करेंगे, इसी विश्वास और कामना के साथ

डा. परमानन्द पांचाल



...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. भूमिका
  2. आमुख
  3. अनुक्रमणिका

लोगों की राय

No reviews for this book